| أمضي إلى المعنى  | |
| وأمتصّ الرحيقَ من الحريقِ  | |
| فأرتوي  | |
| وأعلُّ  | |
| من  | |
| ماءِ  | |
| الملامِ  | |
| وأمرُّ ما بين المسالكِ والمهالكِ  | |
| حيث لا يمٌّ يلمُّ شتاتَ أشرعتي  | |
| ولا أفقٌ يضمّ نثارَ أجنحتي  | |
| ولا شجرٌ  | |
| يلوذُ  | |
| به حَمامي  | |
| أمضي إلى المعنى  | |
| وبين أصابعي تتعانق الطرقاتُ  | |
| والأوقات، ينفضُّ السرابُ عن الشرابِ  | |
| ويرتمي  | |
| ظِلّي  | |
| أمامي  | |
| أفتضُّ أبكارَ النجومِ  | |
| وأستزيد من الهمومِ  | |
| وأنتشي بالخوف حين يمرّ منْ  | |
| خدر الوريدِ  | |
| إلى  | |
| العظامِ  | |
| وأجوب بيداء الدجى  | |
| حتى تباكرني صباحات الحجا  | |
| أَرِقاً  | |
| وظامي.  | |
| - إني رأيتُ.. ألم ترَ!؟  | |
| - عينايَ خانهما الكرى  | |
| وسهيلُ ألقى في يمين الشمسِ  | |
| مهجتَه وولَّى والثريا حلَّ في  | |
| أفلاكها  | |
| بدرٌ  | |
| شآميْ  | |
| يا بدرَها  | |
| وهدى البصيره  | |
| يا فخرَها  | |
| وهوى السريره  | |
| يا مُهرها  | |
| وحِمى العشيره  | |
| يا شَعرها  | |
| ومدى الضفيره.  | |
| في ساحة العثراتِ  | |
| ما بين الخوارجِ والبوارجِ  | |
| ضجّ بي  | |
| صبري  | |
| وأقلقني  | |
| مُقامي  | |
| فمضيت للمعنى  | |
| أُحدّق في أسارير الحبيبة كي  | |
| أُسمّيها  | |
| فضاقتْ  | |
| عن  | |
| سجاياها  | |
| الأسامي  | |
| ألفيتُها وطني  | |
| وبهجةَ صوتها شجني  | |
| ومجدَ حضورها الضافي منايَ  | |
| وريقَها  | |
| الصافي  | |
| مُدامي  | |
| ونظرتُ في عين السَّما  | |
| فخبتْ شَراراتُ الظما  | |
| وانشقَّ  | |
| عن مطرٍ  | |
| غماميْ  | |
| للبائتين على الطوى  | |
| والناشرين لما انطوى  | |
| والناظرين  | |
| إلى  | |
| الأمامِ  | |
| للنخل للكثبان للشيح الشماليِّ  | |
| وللنفحات من ريح الصَّبا  | |
| للطير في خضر الربا  | |
| للشمس للجبلِ  | |
| الحجازيِّ  | |
| وللبحرِ  | |
| التهاميْ. | 
          [8:36 م
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