| - لكِ ولي ، حين نتنكر في هَيئتينا ! -  | |
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| للنهارات العصبية  | |
| التي انفلتتْ في زوايانا  | |
| للمسافات التي   | |
| قضمتْ ارتباكَ الخطو  | |
| على مرأى القمر   | |
| للعاصفة   | |
| للّيل النابت سهواً  | |
| على أطراف الأرصفة   | |
| الليل ،  | |
| أقصدُ الذي نؤويه لنا / كنا   | |
| ونُطعِمُه تفاح السهر  | |
| ..  | |
| لفاتحة العشب  | |
| وسيرة الجبل   | |
| لخطأ النوارس  | |
| وحكمة السارية  | |
| لاستعارات النهر  | |
| وبلاغة التلّة  | |
| لاختصار النار  | |
| والقلق الكامن في حطب الأسئلة  | |
| ..  | |
| لكل ما كان يدفعُ الحياةَ باتجاهنا  | |
| وللصباح الذي   | |
| سكبنا في عينيه البروق   | |
| البروق ،  | |
| وأقصدُ أوردتنا التي في السماء   | |
| السماء ،  | |
| التي خبأنا فيها سِرَّ الحَكايا  | |
| نكايةً بالبحر  | |
| ..   | |
| للأرض التي حضرتْ بقوة  | |
| وللوقت الذي ارتأيناه حليفنا  | |
| وأنفقنا على رغباته   | |
| ..  | |
| للوجوه التي عبرتنا ارتجالاً   | |
| دونما ملامح  | |
| وتلك التي افترضناها عبثاً  | |
| حين كانت تسقطُ منا ظلالُنا  | |
| لفرط  | |
| التشابه  | |
| ..   | |
| لأشجارٍ اختلستْ هيئة الغابة   | |
| وماءٍ تقمّصَ وجهينا  | |
| ولغةٍ ساورتنا الغواية  | |
| فأفضينا إلى باب الكلام  | |
| دون قيافةٍ تُذكَر | 
          [2:35 م
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