| يحدث أن ألتقي امرأة  | |
| فتصافحني  | |
| ثم تمضي  | |
| وتترك في الكف ريحانها  | |
| مثل أي ربيع  | |
| * * *  | |
| يحدث أن ألتقي امرأة  | |
| فتوسدني شعرها  | |
| وتريح جداولها في دمي  | |
| ثم تمضي  | |
| وتتركني للصقيع  | |
| * * *  | |
| يحدث أن ألتقي امراة  | |
| فترافقني حيث أمضي  | |
| نسير معا  | |
| ثم قبل الوصول تضيع  | |
| * * *  | |
| يحدث أن ألتقي امرأة  | |
| فأهيم بها  | |
| و أصيح : هنا وطني  | |
| ثم سرعان مايكشف العمر لي  | |
| أنها موطن للجميع  | |
| * * *  | |
| ينقضي العمر  | |
| يا امرأة لا تجيء  | |
| و يا موعدا كلما صرت فيه  | |
| يؤجلني للربيع  | |
| * * *  | |
| ينقضي العمر يا امرأة  | |
| والمسافات ما بيننا  | |
| ولا درب يجمعنا  | |
| ثم لا نلتقي  | |
| بعد ألف ربيع ..  | |
| * * *  | |
| ينقضي العمر يا امرأة  | |
| يستضيء بها القلب  | |
| لكن تظلين وشما  | |
| تظلين حلما  | |
| يهدهد كل رضيع | 
          [3:31 م
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