| سألّم جثتك الشهيدة   | |
| و أذيبها بالملح و الكبريت ..  | |
| ثم أعبّها ..  | |
| كالشاي   | |
| كالخمر الرديئة..   | |
| كالقصيدة   | |
| في سوق شعر خائب   | |
| و أقول للشعراء:   | |
| يا شعراء أمتنا المجيدة!   | |
| أنا قاتل القمر الذي   | |
| كنتم عبيدة!!   | |
| سيقال: كالمتسول المنفي.. كان   | |
| ردّوه عن كل النوافذ   | |
| و هو يبحث عن حنان.   | |
| لا عاشقان   | |
| يتذكّران...   | |
| _قلبي على قمر   | |
| تحجّر في مكان   | |
| و يقال.. كان!   | |
| و أنا على الإسفلت   | |
| تحت الريح و الأمطار   | |
| مطعون الجنان   | |
| لا تفتح الأبواب في وجهي   | |
| و لا تمتد نحو يدي يدان   | |
| عيني    على قمر الشتاء..   | |
| وقد ترمّد في دمي..   | |
| قلبي على قرص الدخان!   | |
| لا تظلموني أيّها الجبناء   | |
| لم أقتل سوى نذل جبان   | |
| بالأمس عاهدني   | |
| و حين أتيته في الصبح.. خان.. | 
          [1:29 م
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