| هكذا يكبر الشجر   | |
| و يذوب الحصى..   | |
| رويدا رويدا   | |
| من خرير النهر!   | |
| المغني ،على طريق المدينة   | |
| ساهر اللحن.. كالسهر   | |
| قال للريح في ضجر:   | |
| _دمّريني ما دمت أنت حياتي   | |
| مثلما يدّعي القدر_   | |
| ..و اشربيني نخب انتصار الرفات   | |
| هكذا ينزل المطر   | |
| يا شفاه المدينة الملعونة!   | |
| أبعدوا عنه سامعيه   | |
| و السكارى..   | |
| و قيّدوه   | |
| و رموه في غرفة التوقيف   | |
| شتموا أمه، و أمّ أبيه   | |
| و المغني..   | |
| يتغنى بشعر شمس الخريف   | |
| يضمد الجرح.. بالوتر!   | |
| المغني على صليب الألم   | |
| جرحه ساطع كنجم   | |
| قال للناس حوله   | |
| كلّ شيء.. سوى الندم:   | |
| هكذا متّ واقفا   | |
| واقفا متّ كالشجر!   | |
| هكذا يصبح الصليب   | |
| منبرا.. أو عصا نغم   | |
| و مساميره.. وتر!   | |
| هكذا ينزل المطر   | |
| هكذا يكبر الشجر ..  | 
          [8:35 م
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