| لمغنّيك، على الزيتون، خمسون وتر   | |
| و مغنيك أسير كان للريح، و عبدا للمطر   | |
| و مغنيك الذي تاب عن نوم تسلّى بالسهر   | |
| سيسمي طلعة الورد، كما شئت، شرر   | |
| سيسمّي غابة الزيتون في ، ميلاد سحر   | |
| و سيبكي، هكذا اعتاد   | |
| إذا مرّ نسيم فوق خمسين وتر   | |
| آه يا خمسين لحنا دمويا   | |
| كيف صارت لركة الدمّ نجوما و شجر؟   | |
| الذي مات هو القاتل يا قيثارتي   | |
| و مغنيك انتصر!   | |
| إفتحي الأبواب يا قريتنا   | |
| إفتحيها للرياح الأربع   | |
| ودعي خمسين جرحا يتوهّج   | |
| كفر قاسم..   | |
| قرية تحلم بالقمح ،و أزهار البنفسج   | |
| و بأعراس الحمائم  | |
| ............   | |
| _أحصدوهم دفعة واحدة   | |
| أحصدوهم  | |
| ............  | |
| .......حصدوهم ...  | |
| ............  | |
| آه يا سنبلة القمح على صدر الحقول   | |
| و مغنيك يقول:   | |
| ليتني أعرف سر الشجره   | |
| ليتني أدفن كل الكلمات الميته   | |
| ليت لي قوة صمت المقبرة   | |
| يا يدا تعزف، يا للعار! خمسين وتر   | |
| ليتني أكتب بالمنجل تاريخي   | |
| و بالفأس حياتي،   | |
| وجناح القبره  | |
| ............   | |
| كفر قاسم   | |
| إنني عدت من الموت لأحيا، لأغني   | |
| فدعيني أستعر صوتي من جرح توهّج   | |
| و أعينيني على الحقد الذي يزرع في قلبي عوسج   | |
| إنني مندوب جرح لا يساوم   | |
| علمتني ضربة الجلاد أن أمشي على جرحي   | |
| و أمشي..   | |
| ثم أمشي ..  | |
|  و أقاوم! | 
          [3:05 م
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