| تكبّر.. تكبرّ!   | |
| فمهما يكن من جفاك   | |
| ستبقى، بعيني و لحمي، ملاك   | |
| و تبقى، كما شاء لي حبنا أن أراك   | |
| نسيمك عنبر   | |
| و أرضك سكر   | |
| و إني أحبك.. أكثر   | |
| يداك خمائل   | |
| و لكنني لا أغني   | |
| ككل البلابل   | |
| فإن السلاسل   | |
| تعلمني أن أقاتل   | |
| أقاتل.. أقاتل   | |
| لأني أحبك أكثر!   | |
| غنائي خناجر ورد   | |
| و صمتي طفولة رعد   | |
| و زنيقة من دماء   | |
| فؤادي،   | |
| و أنت الثرى و السماء   | |
| و قلبك أخضر..!   | |
| و جزر الهوى، فيك، مدّ   | |
| فكيف، إذن، لا أحبك أكثر   | |
| و أنت، كما شاء لي حبنا أن أراك:   | |
| نسيمك عنبر   | |
| و أرضك سكر   | |
| و قلبك أخضر..!  | |
| وإنّي طفل هواك   | |
| على حضنك الحلو   | |
| أنمو و أكبر ! | 
          [8:10 م
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