| أجيبيني !!    | |
| أنادي جرحك المملوء ملحاً يا فلسطيني !    | |
| أناديه وأصرخُ :    | |
| ذوِّبيني فيه .. صبّيني    | |
| أنا ابنك ! خلّفتني ها هنا المأساةُ ،    | |
| عنقاً تحت سكين .   | |
|  أعيش على حفيف الشوقِ ..    | |
| في غابات زيتوني .    | |
| وأكتب للصعاليك القصائد سكّراً مُرّاً ،    | |
| وأكتب للمساكين .    | |
| وأغمس ريشتي ، في قلب قلبي ،    | |
| في شراييني .    | |
| وآكل حائط الفولاذ ..    | |
| أشرب ريح تشرين .    | |
| وأدمي وجه مغتصبي    | |
| بشعرٍ كالسكاكين .    | |
| وإن كسر الردى ظهري ،    | |
| وضعت مكانه صوّانة ،    | |
| من صخر حطين .. !!     | |
|   فلسطينيةٌ شبّابتي ،    | |
| عبأتها ،    | |
| أنفاسي الخضرا .    | |
| وموّالي ،    | |
| عمود الخيمة السوداءِ ،    | |
| في الصحرا .    | |
| وضجة دبكتي ،    | |
| شوق التراب لأهله ،    | |
| في الضفة الأخرى . | 
          [2:58 م
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