| يا رفيقَ الدَّرب   | |
| تاه الدَّرْبُ منّا .. في الضباب   | |
| يا رفيقَ العمر   | |
| ضاعَ العمرُ .. وانتحرَ الشباب   | |
| آهِ من أيّامنا الحيرى   | |
| توارتْ .. في التراب   | |
| آهِ من آمالِنا الحمقى   | |
| تلاشتْ كالسراب   | |
| يا رفيقَ الدَّرْب   | |
| ما أقسى الليالي   | |
| عذّبتنا ..   | |
| حَطَّمَتْ فينا الأماني   | |
| مَزَّقَتْنا   | |
| ويحَ أقداري   | |
| لماذا .. جَمَّعَتنا   | |
| في مولدِ الأشواق   | |
| ليتها في مولدِ الأشواقِ كانتْ فَرّقَتْنا   | |
| لا تسلني يا رفيقي   | |
| كيف تاهَ الدربُ .. مِنَّا   | |
| نحن في الدنيا حيارى   | |
| إنْ رضينا .. أم أَبَيْنَا   | |
| حبّنا نحياه يوماً   | |
| وغداً .. لا ندرِ أينَ !!   | |
| لا تلمني إن جعلتُ العمرَ   | |
| أوتاراً .. تُغنّي   | |
| أو أتيتُ الروضَ   | |
| منطلقَ التمنّي   | |
| فأنا بالشعرِ أحيا كالغديرِ المطمئنِّ   | |
| إنما الشعرُ حياتي ووجودي .. والتمنّي   | |
| هل ترى في العمر شيئاً   | |
| غير أيامٍ قليلة   | |
| تتوارى في الليالي   | |
| مثل أزهارِ الخميلة   | |
| لا تكنْ كالزهرِ   | |
| في الطُّرُقَاتِ .. يُلقيه البشر   | |
| مثلما تُلقي الليالي   | |
| عُمْرَنا .. بين الحُفَر   | |
| فكلانا يا رفيقي   | |
| من هوايات القَدَر   | |
| يا رفيقَ الدَّرْب   | |
| تاهَ الدربُ مني   | |
| رغمَ جُرحي   | |
| رغمَ جُرحي ..   | |
| سأغنّي | 
          [2:28 م
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