نعرف الآن جميع الأمكنه | |
نقتفي آثار موتانا | |
و لا نسمعهم. | |
و نزيح الأزمنه | |
عن سرير الليلة الأولى، و آه.. | |
في حصار الدم و الشمس | |
يصير الانتظار | |
لغة مهزومة.. | |
أمي تناديني، و لا أبصرها تحت الغبار | |
و يموت الماء في الغيم و آه .. | |
كنت في المستقبل الضاحك | |
جنديين، | |
صرت الآن في الماضي ويد. | |
كل موت فيه وجهي | |
معطف فوق شهيد | |
و غطاء للتوابيت، و آه.. | |
لست جنديّا | |
كما يطلب منّي ، | |
فسلاحي كلمة | |
و التي تطلبها نفسي | |
أعارت نفسها للملحمة | |
و الحروب انتشرت كالرمل و الشمس، و آه.. | |
بيتك اليوم له عشر نوافذ | |
و أنا أبحث عن باب | |
و لا باب لبيتك | |
و الرياح ازدحمت مثل الصداقات التي | |
تكثر في موسم موتك | |
و أنا أبحث عن باب، و آه .. | |
لم أجد جسمك في القاموس | |
يا من تأخذين | |
صيغة الأحزان من طرواده الأولى | |
و لا تعترفين | |
بأغاني إرميا الثاني، و آه.. | |
عندما ألقوا عليّ القبض | |
كان الشهداء | |
يقرأون الوطن الضائع في أجسامهم | |
شمسا و ماء | |
و يغنّون لجنديّ، و آه.. | |
نعرف الآن جميع الكلمات. | |
و الشعارات التي نحملها: | |
شمسا أقوى من الليل | |
و كل الشهداء | |
ينبتون اليوم تفاحا، و أعلاما، و ماء | |
و يجيئون.. | |
يجيئون.. | |
يجيئون | |
و آه .. |
[2:23 م
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